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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

इ॒मं न॑रो मरुतः सश्च॒तानु॒ दिवो॑दासं॒ न पि॒तरं॑ सु॒दासः॑। अ॒वि॒ष्टना॑ पैजव॒नस्य॒ केतं॑ दू॒णाशं॑ क्ष॒त्रम॒जरं॑ दुवो॒यु ॥२५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imaṁ naro marutaḥ saścatānu divodāsaṁ na pitaraṁ sudāsaḥ | aviṣṭanā paijavanasya ketaṁ dūṇāśaṁ kṣatram ajaraṁ duvoyu ||

पद पाठ

इ॒मम्। न॒रः॒। म॒रु॒तः॒। स॒श्च॒त॒। अनु॑। दिवः॑ऽदासम्। न। पि॒तर॑म्। सु॒ऽदासः॑। अ॒वि॒ष्टन॑। पै॒ज॒ऽव॒नस्य॑। केत॑म्। दुः॒ऽनाश॑म्। क्ष॒त्रम्। अ॒जर॑म्। दु॒वः॒ऽयु ॥२५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:25 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:28» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:25


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे राजा को अच्छे प्रकार आश्रय करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) नायक (मरुतः) मनुष्यो ! जो (सुदासः) उत्तम दान देनेवाला हो (इमम्) उस (दिवोदासम्) विद्याप्रकाश देनेवाले को (पितरम्) पालनेवाले पिता के (न) समान तुम लोग (सश्चत) मिलो, सम्बन्ध करो और (पैजवनस्य) क्षमाशील है जिसका उससे उत्पन्न हुए पुत्र के (दूणाशम्) दुःख से नाश करने योग्य पदार्थ वा दुर्लभ विनाश (केतम्) उत्तम बुद्धि और (अजरम्) विनाशरहित (दुवोयु) सेवन करने के लिये मनोहर (क्षत्रम्) राज्य वा धन को (अनु, अविष्टन) व्याप्त होओ ॥२५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । यदि मनुष्य विद्यादि शुभ गुणों के देनेवाले, पिता के समान =पालक राजा का आश्रय करें तो पूर्ण प्रज्ञा अविनाशि सेवने योग्य ऐश्वर्य और राज्य को स्थिर कर सकें ॥२५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा, प्रजा, मित्र, धार्मिक, अमात्य, शत्रुनिवारण तथा धार्मिक सत्कार के अर्थ का प्रतिपादन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अठारहवाँ सूक्त और अट्ठाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कीदृशं राजानं समाश्रयेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे नरो मरुतो यः सुदासो भवेत्तमिमं दिवोदासं पितरं न यूयं सश्चत पैजवनस्य दूणाशं केतमजरं दुवोयु क्षत्रं चान्वविष्टन ॥२५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमम्) (नरः) नायकाः (मरुतः) मनुष्याः (सश्चत) समवयन्तु (अनु) (दिवोदासम्) विद्याप्रकाशदातारम् (न) इव (पितरम्) पालकम् (सुदासः) उत्तमविद्यादानः (अविष्टन) व्याप्नुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पैजवनस्य) क्षमाशीलाज्जातस्य पुत्रस्य (केतम्) प्रज्ञाम् (दूणाशम्) दुःखेन नाशयितुं योग्यं दुर्लभविनाशं वा (क्षत्रम्) राज्यं धनं वा (अजरम्) नाशरहितम् (दुवोयु) परिचरणाय कमनीयम् ॥२५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यदि मनुष्या विद्यादिशुभगुणदातारं पितरमिव पालकं राजानमाश्रयेयुस्तर्हि पूर्णां प्रज्ञामविनाशि सेवनीयमैश्वर्यं राज्यं च स्थिरं कर्तुं शक्नुयुरिति ॥२५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजामित्रधार्मिकाऽमात्यशत्रुनिवारणधार्मिकसत्करणार्थप्रतिपादनादस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टादशं सूक्तमष्टाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जर माणसांनी विद्या इत्यादी शुभ गुण देणाऱ्या पित्याप्रमाणे पालक असलेल्या राजाचा आश्रय घेतला तर ते पूर्ण अविनाशी प्रज्ञा व स्वीकारण्यायोग्य ऐश्वर्य व राज्य स्थिर करू शकतील. ॥ २५ ॥